आजकल युवा पीढी में आत्म हत्या के बहुत मामले इन दिनों देखने सुनने को मिल रहे हैं।प्रत्यूषा बनर्जी के अप्रत्याशित रुप से चला जाना सबके मन में सवालिया प्रश्न सबके मन में उठ रहा है कि ऐसा क्यों बढता जा रहा हैं।पढने वाले बच्चे जब आत्म हत्या करते है तो हम शिक्षा ,प्रतियोगिता के वातातरण में कारण ढूढ़ते हैं। आज का युवा वर्ग सब जल्दी जल्दी सब पाना चाहता है । मन चाहा पा भी लेते तो और और पाना चाहते हैं। पा कर संजोना,संजो कर सहेजने का धैर्य समाज से जैसे विलुप्त होता जा रहा है
हमारी जरुरतें ,इच्छायें महत्वाकाक्षायें असीमित होती जा रही हैंऔर यह पूरी भी हो रही हैं। और जितनी पूरी हो रही हैं उतनी बढ रही हैं।जब बच्चे कैरियर या शिक्षा केलिये बाह र जाते तब से माॅ बाप आचानक चाहने लगते कि बच्चे उनकी सुसुप्त महत्वाकंक्षा यें भी पूरी करें।आज बच्चे के शिक्षा ग्रहण कर बाहर निकलते ही उसका पैकिज अत्यन्त महत्व पूर्ण हो जाता है।और उसकी तुलना उसके आसपास के दोस्तो ,रिश्ते दारों से होने लगती है।
बच्चे क्या खा रहे है किन परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहे हैं यहबात दिनों दिन गौण होती जा रही है।महत्व पूर्ण यह हो गया है कि उनका पैकेज क्या है?
,वो ब्राडेड कपडे, जूते पहन रहे है बडे होटलों में खा रहे है।जीवन का स्तर शुद्ध ताजे भोजन से नहीं बिना नहायें डिओ की खुशबू से तय हो रहा है।ताजे भोजन की जगह डिब्बा बन्द खाने से हो रही है।
शादी से पहले लिव इन तो ऐसे है जैसे इससे किसी को कोई फर्क ही नहीं पडता।सैक्स की व्यक्तिगत कोमल भावना अखबारों और इलेक्ट्रोनिक की सुर्खियां बनती हैं फिर ब्रेक अप की खबरें।और इतने नव युवको ,नवयुवतियों को समाज जिसे बहुत पहले पीछे छोड आये थे वो दिखने लगता है।और चारों ओर जहां कल तक गलैमर दिख रहा था ,अब जरा सा नीचे आने पर सब डूबता सा नज़र आने लगता है। उजाला अब अंधेरे में बदलने की आशंका मात्र से मानसिक संतुलन अपना आप खो बैठते है और आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं।क्योंकि उन्हे हमनें संघर्ष करना नहीं सिखाया है। हमनें तो उन्हे मात्र पाना और जल्दी जल्दी सब पाना सिखाया है।
भावुकता ,त्याग ,समर्पण ,हमें देना सिखाता था जब कि आज प्रचलित पाने कीऔर सिर्फ हासिल करने की चाह ने आलगाव और आत्महत्या जैसे कृत्यों को बढवा दिया है। रेणुजुनेजा।
Wednesday, April 6, 2016
आत्म हत्या भावुक क्षणों में उठाया गया कायराना कदम
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