Saturday, April 20, 2013

दिल्ली में फिर वहशी

अब तो ना छोटे कपडों में थी
ना मैं लडकों में थी
ना घर के बाहर थी
मैं तो मां की गोदी से उतरी भी ना थी
फिर कैसे तुम्हारा वहशीपन जाग गया
मेरे बालपन को खा गया.
घर पे तुम्हारे देवीपूजन चल रहा होगा.
इक ओर मेरी उम् की बच्चियों को ढूढं कर
जिमा रहे होगें
उन्हे देवी होने का एहसास दिलवा रहे होगें

दूसरी ओर तुम जैसे मेरे शरीर पर वहशीपन उतार कर
विजय ध्वज फहरा रहे हो.

क्याकोई न्याय करेगा कोई?
मेरे दुख हरेगा कोई.
जो भी आयेगा चंद सिक्कों की कनक दिखायेगा
आश्वासन के तीर चलयेगा
इक दिन की सुर्खियों के बाद मेरा दर्द सिर्फ मेरा रह जायेगा.

पुस्तक समीक्षा ः एक महात्मा एक संत

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