Saturday, December 6, 2025

पुस्तक समीक्षा ः एक महात्मा एक संत

पुस्तक समीक्षा 

           *एक था डॉक्टर   था संत*

           ( आम्बेडकर गांधी संवाद ) 



लेखिका - अरुन्धती राय

पृष्ठ संख्या -139 

क़ीमत - 250₹


इस वर्ष पत्रिका के बुक फ़ेयर में एक पुस्तक दिखी एक संत एक डॉ लेखिका हैं अरुन्धती राय—जी हाँ, वही बुकर पुरस्कार विजेता गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स जिनकी पहली किताब थी। हाल में प्रकाशित उनकी नई किताब “मदर मेरी कम्स टू मी “ भी मेरे हाथ में है। उसे पढ़ते-पढ़ते मैंने परसों पुस्तक मेले से खरीदी यह किताब एक संत एक डॉक्टर पढ़ना इस मंशा से शुरू किया कि देखें—नेहरू, गांधी, आंबेडकर और आज़ादी के अनेक नेताओं पर आज वे लोग विचार प्रकट कर रहे हैं जिन्होंने स्वयं स्वतंत्रता-पूर्व भारत नहीं देखा, न उसकी तकलीफ़ें जानीं। फिर भी वे भाषणों और बयानबाज़ी में जनता को गुमराह करते रहते हैं। बस, इन्हीं विचारों से दो-दो हाथ होते यह किताब खरीद ली।

पढ़ना शुरू किया—ओहो !! यह बताना तो भूल ही गई कि इस पुस्तक ‘संत’ महात्मा गांधी और ‘डॉ’ भीमराव आंबेडकर हैं । 

 अरुन्धती के विचारों से हम सहमत हों या न हों, पर वे एक सिद्धहस्त लेखिका हैं। मैं किसी आलोचना, किसी नए विचार या किसी चर्चित सार्वजनिक व्यक्तित्व को अपने नज़रिए से देखने के विरुद्ध नहीं हूँ—और इसी नज़रिए से पुस्तक शुरू की। बिना रुके आधी किताब पढ़ डाली, फिर दृष्टि गई कि ढाई सौ पन्नों की इस पुस्तक को लिखने के लिए लेखिका ने 

बहुत अधिक संदर्भ पुस्तक के अंत में जोड़े हैं।संदर्भ पृष्ठों की संख्या भी 43 है । 


गाँधी और आंबेडकर: संवाद, मतभेद और दृष्टि-भिन्नता

अरुन्धती रॉय की यह पुस्तक महज़ दो ऐतिहासिक पात्रों का तुलनात्मक अध्ययन नहीं है, बल्कि यह भारत के सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक ढाँचे पर एक गहन विमर्श है। रॉय गांधी और आंबेडकर—दोनों के विचारों, उनके संघर्षों और उनके आपसी मतभेदों को तीखे किन्तु तथ्यपूर्ण ढंग से रखती हैं।


गाँधी का ‘हरिजन’ शब्द प्रयोग, अस्पृश्यता पर उनके विचार, और सामाजिक सुधार का उनका क्रमिक मार्ग—इन सबकी आलोचना आंबेडकर के दृष्टिकोण से करते हुए पुस्तक यह दिखाती है कि दलित अधिकारों की लड़ाई में आंबेडकर की दृष्टि कहीं अधिक क्रांतिकारी और सीधी थी।

वहीं दूसरी ओर, गांधी की अहिंसा, सत्याग्रह और नैतिक राजनीति की अवधारणाएँ रॉय के विश्लेषण में अपनी जटिलताओं के साथ उभरती हैं—एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो समाज की गहरी जड़ें बदलना चाहता था, पर धीरे-धीरे सुधार के रास्ते से।

भाषा और प्रस्तुति

अरुन्धती रॉय का लेखन हमेशा की तरह सधा हुआ, तर्कपूर्ण और उकसाने वाला है। वे किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व को ‘देवता’ बनाने या ‘खलनायक’ सिद्ध करने की बजाय उनके विचारों की परतें खोलती हैं।

किताब में कई स्थानों पर वे अपनी वैचारिक असहमति स्पष्ट रूप से दर्ज करती हैं, पर तथ्यों और संदर्भों के सहारे यही पुस्तक को गंभीर और भरोसेमंद बनाता है।

उनकी भाषा में भावनात्मकता भी है और तीखापन भी—जैसे पाठक से प्रत्यक्ष संवाद कर रही हों।

संदर्भ—एक अद्भुत शोध-प्रयास जो अनुक्रमणिका देख कर पता चलता है । 

पुस्तक की सबसे उल्लेखनीय विशेषता उसका वृहद् संदर्भ-संग्रह है।

लगभग ढाई सौ पन्नों की इस पुस्तक में 2500 से अधिक संदर्भ लेखिका ने दिए हैं—यह दर्शाता है कि यह रचना कोई आकस्मिक या भावावेश में लिखी टिप्पणी नहीं है, बल्कि वर्षों के अध्ययन, शोध और बहस का परिणाम है।

इतने विशाल स्रोत-संग्रह से यह भी स्पष्ट होता है कि लेखिका इतिहास और राजनीति के कठिन प्रश्नों पर बिना तैयारी के कोई ‘मत’ नहीं देतीं। हर तथ्य के पीछे दस्तावेज़ है, हर दावा किसी उद्धरण या भाषण से पुष्ट है।

गाँधी–आंबेडकर विवाद पर नया दृष्टिकोण

अरुन्धती रॉय इस पुस्तक में उन प्रश्नों को उठाती हैं जिनसे अक्सर मुख्यधारा की राजनीति बचती है:

क्या गांधी जाति-व्यवस्था को समाप्त करना चाहते थे या उसे ‘सुधारना’?

क्या आंबेडकर ने गांधी के साथ संवाद में स्वयं को पर्याप्त सुना हुआ पाया?

क्या दलित मुक्ति के प्रश्न पर दोनों की राहें मूलतः अलग थीं?


इन प्रश्नों पर रॉय का विश्लेषण तटस्थ नहीं—बल्कि स्पष्ट रूप से आंबेडकर-केन्द्रित है।

पर उनकी चुनौती यही है: ऐतिहासिक बहसों को अनदेखा न करें, बल्कि उन्हें समझें, पढ़ें और उनके भीतर छिपे सामाजिक सत्य की पड़ताल करें।


समकालीन भारत में जब इतिहास को नए-नए चश्मों से पढ़ा और समझाया जा रहा है, तब रॉय की यह किताब यह याद दिलाती है कि इतिहास को समझना तभी संभव है जब हम उसमें असल विवाद, असल मतभेद और असल संघर्षों को स्वीकार करें।

किताब में संवाद 139 पृष्ठों में है और सन्दर्भ अनुक्रमणिका की 140 -183 पृष्ठों की लम्बी फ़ेहरिस्त जिसमें हिन्दी अंग्रेज़ी के सन्दर्भ उद्धृत है । मूल रुप से पुस्तक अंग्रेज़ी में लिखी गयी है । मैंने हिन्दी अनुवाद पढ़ा है । किन्तु पुस्तक अन्य कई भाषाओं में अनुवादित है ।

हिन्दी अनुवादक - अनिल यादव जी ने किया है । 

भाषा का प्रवाह और गति पाठक को बन्धें रखता है ।

गांधीवादी उद्वेलित हुए बिना किताब को पढ़े तब पायेंगे कि गाँधी और आंबेडकर—ये दोनों केवल व्यक्तित्व नहीं, बल्कि दो विचारधाराएँ हैं।

एक क्रमिक सुधार की, दूसरी बुनियादी परिवर्तन की।

इन दोनों को बिना समझे भारत के सामाजिक ढाँचे को समझना असंभव है। 


कुल मिलाकर—एक विचार-उत्तेजक और ज़रूरी पाठ


एक संत, एक डॉक्टर सिर्फ इतिहास नहीं, आज के भारत की हवा में घूमते उन प्रश्नों का उत्तर ढूँढती है जिन्हें अक्सर ‘असुविधाजनक’ कहकर किनारे किया जाता है।

लेखिका का दृष्टिकोण कहीं-कहीं तीखा, कहीं विवादास्पद अवश्य लगता है, पर साहित्य का काम केवल सहमति जुटाना नहीं—विचारों को जगाना भी है। पर एक बात और हैं लेखिका कहीं भी गाँधी के विचारों को डिस्कार्ड नहीं करती । 

जो पाठक गांधी और आंबेडकर के संबंधों को समझना चाहते हैं, या यह जानना चाहते हैं कि इन दोनों महापुरुषों के विचार आज की राजनीति, समाज और नैतिकता को कैसे प्रभावित करते हैं—उनके लिए यह पुस्तक अनिवार्य रूप से पढ़ने योग्य है।

©️रेणु जुनेजा ✍️

Monday, November 27, 2017

इज्जत और आदर

मित्रों ,
अस्वस्थ होने के कारण  दो दिन विचार आगे नहीं बढा. पाइ ।
 आइए आज बात करते हैं इज्जत और आदर की
शिक्षकों और गुरुओं को व्यथा रहती है,शिष्य आदर देते , आदर  नहीं करते। बहुत दुःख और खेद की बात है।परन्तु दुनिया बदल रही है।गुरु शिष्य परम्परा अब समाप्त  हो गयी है। अब सूचनाओं और जानकारियों  से संसार अटा पडा है। हैं ।
 ज्ञान के लिये शिष्य अपने आध्यापक का अंकलन करता है , तो वो उन्हे उस स्तर पर नहीं पाता जहाँ अध्यापक या शिक्षक होना चाहिये। जानकारियों के लिये आध्यापक भी  वहीं देखते हैं जहां शिष्य देखते हैं ।तब छात्र आदर नही अंकलन करते हैं । छात्र अध्यापक को उस स्तर पर नहीं देखते जहाँ देखना चाहते हैं।आज आध्यापक भी  उन्ही छात्रों को तवज्जो देते हैं जो परिणाम साथ पैसा दे अर्थात टयूशन लें।आध्यापक अगर छात्र के मन तक पहुँच कर पढ़ायेगा , सिखायेगा  तब उसे ऐसी कोई उम्मीद नहीं होगी।हमें आज भी वो शिक्षक याद हैं जिन्होने हमारे मनों में कुछ करने  की आग भरी थी। वो भी याद हैं जिन्होने कमतर होते हुये भी पीठ थपथपाई थी कि नहीं, तुम कर लोगे। ऐसे आध्यापकों  ने
इज्जत मांगी नहीं थी , उन्होने इज्जत कमाई थी ।इज्जत earn की थी।लोगों को इज्जत माँगनी नहीँ इज्जत कमानी चाहिये।मेरी एक गणित की टीचर जो विद्यालय की प्रिन्सिपल भी थी। हम गणित में कमज़ोर छात्राओं को इन्टर वल में
गणित करवाती थी , फिर भी न कर पाने पर कहती थी , अच्छा जो हिस्सा पसन्द हो उसको पूरा ठीक करना ,ताकि तुम्हारे नम्बर ज़्यादा प्रभावित ना हो ।उनका यह लहजा अब तक गूजंता कानों में, और उनके लिये मन श्रद्धा से भर उठता है।

रेणु जुनेजा c@✍🏻

Saturday, January 14, 2017

दंगल

                                                            फिल्म समीज्ञा
                                               समाज का आइना भी दिखाती है दंगल
भारत में अपने राष्ट्रीय खेलों की साख को पुर्न जीवित करने के उदेश्य से बनायी गयी फिल्म दंगल देखने का मौक़ा मिला। आमिर की इस फिल्म ने आमिर को और निर्देशकों से अलग कर दिया।सतर करोड़ की इस फिल्म को देखने जायेंगे तो  पायेंगे की देशप्रेम को एक नये तरीक़े से , सामाजिक समस्याका समाधान करते हुये फिल्म का      निर्माण  किया गया है।      निर्देशन भी बहुत सशक्त और सधा हुआ है। जो दर्शकों पूरे समय बाँधे रखता है।फिल्म जहां कुश्ती की हमारी परम्परा  से  हमें बान्धे रखती है वही वही इस खेल को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने की लालसा रखती है। दूसरी ओर यह महिला सशक्तिकरण विशेष रुप से बेटी पढ़ाओं, बेटी बचाओ को आगे ले जाती है। बेटी को मुक़ाम तक पहुचाओं  को पूरा करती दिखती है। और यह मुहिम परिवार का  मुखिया हाथ में ले ले तो बेटियाँ  बचेगी भी , आगे बढ़ेगी और मुक़ाम  तक भी बढ़ेगी। फिल्म उस राज्य का प्रतिनिधित्व करती है। जहाँ दमख़म वाली महिलायें तो हैं पर उन्हें मन के अनुरूप काम करने की छूट नहीं है।फिल्म दर्शाती है कि आलोचक उदेश्य पूर्ति होने पर कैसे समर्थक बन जाते हैं।फिल्म में बाल सुलभ इच्छा ओं  परम्परा  से लड़ना , और आगे बढ़ने के दृश्यों का बहुत ख़ूब सूरत मूल्याँकन किया गया है।बच्चों का पिता का विरोध और ग़लती करके सीखने के दृश्य अत्यन्त भावपूर्ण रुप से फ़िल्माये गये हैं।इसके आलावा उदेश्य तक पहुँचने के लिये जुनून के हद तक की चाहत को दर्शा कर परिपक्व  समाजोपयोगी  समाज को दिशा देने वाली फिल्म है दंगल ।। @c रेणु जुनेजा 

Sunday, December 18, 2016

दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला

                                                दिल्ली हाईकोर्ट का साहसिक फैसला
दिल्ली हाइकोर्ट ने एक महत्व पूर्ण फ़ैसला देकर बहुत से वृद्घ माता पिता को राहत दे दी है। माता पिता के साथ रहते रहते बच्चे आचनक कहने लगते हैँ माता पिता  हमारे साथ रहते हैं,। माता पिता समझ नही पाते कि यह बदलाव कैसे और कब हुआ ।मां बाप इसे बच्चो का बचपना समझ दर किनार करने की कोशिश करते कि इतने में बच्चे आचनक इस तरह व्यवहार करते कि जैसे माता पिता ने उन्हें जन्म देकर भारी ग़लती कर दी हो। ज़रा तकलीफ़ या ज़िम्मेवारी आते ही
 वो यहाँ तक कहने  लगते पैदा करके एहसान किया है क्या? ये तक भी सुनते हैं माता पिता  कि आचनक उनके सब कुछ पर हक़ ज़माने लगते हैं मानो उनकी कोई ज़रूरत ही नहीं हो।आचनक एक स्वर आता है मकान मेरे नाम कर दो तुम्हारा क्या पता कब सरक लो सो बेचारे शांति घर के सुखके लिये वो भी कर देते हैं।इसके बाद अगला क़दम प्रापर्टी बेचने की माँग आ जाती है। हकेबक्के मां बाप बरसों से जहाँ रह रहे थे उस अपने नीड़ को छोड़कर कहाँ जाये।इन्हीं परिस्थियों को देखते हुये कोर्ट का फ़ैसला आया है कि माँ बाप के मकान पर लड़के का हक़ नहीं होगा चाहे वो माता पिता के साथ क्यों न रहता  हो। इस अहम् फ़ैसले में तो यहाँ तक कहा है कि बेटा चाहे विवाहित हो या आविवाहित। माता पिता जबतक चाहे तब तक पुत्र को साथ रखे अन्यथा नहीं भी रख सकते।न्यायधीश प्रतिमा रानी ने यह फ़ैसला एक बुज़ुर्ग दम्पति की याचिका के बाद दिया।इस दम्पति को पुत्र और पुत्र वधू द्वारा घर से निकालने बाद दिया।न्यायालय ने कहा -माता पिता ने
अच्छे संबंधों के रहते बेटा बहू को साथ रहने दिया।परन्तु इसका तात्यपर्य यह नहीं कि वो ता उम्र बोझ उठायेंगे।
पुत्र और उसका परिवार तब तक ही माता पिता की इच्छा पर ही साथ रह सकता है । माता पिता की अनइच्छा पर नही।
हाईकोर्ट का यह फ़ैसला उन माता पिता के लिये बहुत उत्तम है जिनके बच्चे वृद्धावास्था में घर से बेघर कर देते हैं।और उनकी जमा पूजी हड़प लेते हैं।
यह पैसाला तभी सार्थक होगा जब माता पिता बेटे की बदनीयती का समय रहते विरोध करेगे।और समय से पहले अपना घर भावुकता में बेटों को नही सौंप देंगे।  @cरेणुजुनेजा
   

Saturday, December 3, 2016

बेकल उत्साही

बेकल उत्साही
प्रसिद्ध शायर बेकल उत्साही का इंतक़ाल साहित्य जगत के लिये अपूरणीय क्षति है। 
बेकल उत्साही साहित्य जगत के एक चमकते बेबाक़ सितारे थे। बेकलउत्साही उनका उपनाम था।
आपका पूरा नाम मोहम्मद शफ़ी खान था।आपका जन्म एक जून १९२८में  ग्राम ग़ौर राम पुरा में हुआ था।
आपके पिता शफ़ी मोहम्मद जफर थे।आपके उपनाम की अलग कहानी है।
१९५२में पण्डित नेहरु ने एक कार्यक्रम में 
आपका काव्यपाठ सुनकरदिया था।
साहित्यिक योगदान
आपकी मुख्यप्रकाशित साहित्य में 
बापू का सपना
नग्मा औ तरन्नुम
सरुरे जाविदाँ
पुरवाईयां
निशाने ज़िन्दगी
विजय बिगुल
चहके बगिया महके गीत
कोमल  मुखड़े  बेकल गीत
अपनी धरती चाँद का दर्पण
ग़ज़लसांवरी
रंग हज़ारों ख़ुशबू एक
मिट्टी , रेत, चट्टान
अन्जुरी भर आन्दोलन
ग़ज़ल गंगा
धरती सदा सुहागिन।
लफ्जोंकी घटायें इत्यादि  प्रमुख हैं। आपको दो दर्जन साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया  ।
१९४६ में पद्म श्री से अंलकृत , १९५५ में  राष्ट्पति सम्मान द्वारा सम्मानित   किया गया।
मैं सुदामा प्यार का , प्यार द्वारिका नाथ 
प्यासे दोनों नयन हैं , भूखे दोनों हाथ ।
मैं तुलसी का वंश हूँ, अवध पुरी है धाम ।
साँस साँस गीता   बसी रोम रोम राम,
धर्म मेरा इस्लाम है, भारत जन्म स्थान।
अपने मन मैं करुं, मैं कैसा इंसान ।
भाव सुभाव के पाठ में ,मैं अक्षर अनमोल, 
नबी मेरा इतिहास है, कृष्ण मेरा भूगोल ।
 होली डूबी रंग में ,ईद हुई पोशाक
 मानवता विजयी हुई  नफ़रत हो गयी ख़ाक।
ये है बेकल उत्साही।  

आत्म हत्या भावुक क्षण में उठाया कदम

आजकल युवा पीढी में आत्म हत्या के बहुत मामले इन दिनों देखने सुनने को मिल रहे हैं।प्रत्यूषा बनर्जी के अप्रत्याशित रुप से चला जाना सबके मन में सवालिया प्रश्न सबके मन में उठ रहा है कि ऐसा क्यों बढता जा रहा हैं।पढने वाले बच्चे जब आत्म हत्या करते है तो हम शिक्षा ,प्रतियोगिता के  वातातरण में कारण ढूढ़ते हैं। आज का युवा वर्ग सब  जल्दी जल्दी सब पाना चाहता है । मन चाहा पा भी लेते तो और और पाना चाहते हैं। पा कर संजोना,संजो कर सहेजने का धैर्य समाज से जैसे विलुप्त होता जा रहा है
हमारी जरुरतें ,इच्छायें महत्वाकाक्षायें असीमित होती जा रही हैंऔर यह पूरी भी हो रही हैं। और जितनी पूरी हो रही हैं उतनी बढ रही हैं।जब बच्चे कैरियर या शिक्षा केलिये बाह र  जाते तब से माॅ बाप आचानक चाहने लगते कि बच्चे उनकी सुसुप्त महत्वाकंक्षा यें भी पूरी करें।आज बच्चे के शिक्षा ग्रहण कर बाहर निकलते ही उसका पैकिज अत्यन्त महत्व पूर्ण हो जाता है।और उसकी तुलना उसके आसपास के दोस्तो ,रिश्ते दारों से होने लगती है।
बच्चे क्या खा रहे है किन परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहे हैं यहबात दिनों दिन गौण होती जा रही है।महत्व पूर्ण यह हो गया है कि उनका पैकेज क्या है?
,वो ब्राडेड कपडे, जूते पहन रहे है बडे होटलों में खा रहे है।जीवन का स्तर शुद्ध ताजे भोजन से नहीं बिना नहायें डिओ की खुशबू से तय हो रहा है।ताजे भोजन की जगह डिब्बा बन्द खाने से हो रही है।
शादी से पहले लिव इन तो ऐसे है जैसे इससे किसी को कोई फर्क ही नहीं पडता।सैक्स की व्यक्तिगत कोमल भावना अखबारों और इलेक्ट्रोनिक की सुर्खियां बनती हैं फिर ब्रेक अप की खबरें।और इतने  नव युवको ,नवयुवतियों को समाज जिसे बहुत पहले पीछे छोड आये थे वो दिखने लगता है।और चारों ओर जहां कल तक गलैमर दिख रहा था ,अब जरा सा नीचे आने पर सब डूबता सा नज़र आने लगता है। उजाला अब अंधेरे में बदलने की आशंका मात्र से मानसिक संतुलन  अपना आप खो बैठते है और आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं।क्योंकि उन्हे हमनें संघर्ष  करना नहीं सिखाया है। हमनें तो उन्हे मात्र पाना और जल्दी जल्दी सब पाना सिखाया है।
भावुकता ,त्याग ,समर्पण ,हमें देना सिखाता था जब कि आज प्रचलित पाने कीऔर सिर्फ हासिल करने  की चाह ने आलगाव और आत्महत्या जैसे कृत्यों को बढवा दिया है। रेणुजुनेजा।

पुस्तक समीक्षा ः एक महात्मा एक संत

​ पुस्तक समीक्षा             *एक था डॉक्टर   था संत*            ( आम्बेडकर गांधी संवाद )  लेखिका - अरुन्धती राय पृष्ठ संख्या -139  क़ीमत - 2...