पुस्तक समीक्षा
*एक था डॉक्टर था संत*
( आम्बेडकर गांधी संवाद )
लेखिका - अरुन्धती राय
पृष्ठ संख्या -139
क़ीमत - 250₹
इस वर्ष पत्रिका के बुक फ़ेयर में एक पुस्तक दिखी एक संत एक डॉ लेखिका हैं अरुन्धती राय—जी हाँ, वही बुकर पुरस्कार विजेता गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स जिनकी पहली किताब थी। हाल में प्रकाशित उनकी नई किताब “मदर मेरी कम्स टू मी “ भी मेरे हाथ में है। उसे पढ़ते-पढ़ते मैंने परसों पुस्तक मेले से खरीदी यह किताब एक संत एक डॉक्टर पढ़ना इस मंशा से शुरू किया कि देखें—नेहरू, गांधी, आंबेडकर और आज़ादी के अनेक नेताओं पर आज वे लोग विचार प्रकट कर रहे हैं जिन्होंने स्वयं स्वतंत्रता-पूर्व भारत नहीं देखा, न उसकी तकलीफ़ें जानीं। फिर भी वे भाषणों और बयानबाज़ी में जनता को गुमराह करते रहते हैं। बस, इन्हीं विचारों से दो-दो हाथ होते यह किताब खरीद ली।
पढ़ना शुरू किया—ओहो !! यह बताना तो भूल ही गई कि इस पुस्तक ‘संत’ महात्मा गांधी और ‘डॉ’ भीमराव आंबेडकर हैं ।
अरुन्धती के विचारों से हम सहमत हों या न हों, पर वे एक सिद्धहस्त लेखिका हैं। मैं किसी आलोचना, किसी नए विचार या किसी चर्चित सार्वजनिक व्यक्तित्व को अपने नज़रिए से देखने के विरुद्ध नहीं हूँ—और इसी नज़रिए से पुस्तक शुरू की। बिना रुके आधी किताब पढ़ डाली, फिर दृष्टि गई कि ढाई सौ पन्नों की इस पुस्तक को लिखने के लिए लेखिका ने
बहुत अधिक संदर्भ पुस्तक के अंत में जोड़े हैं।संदर्भ पृष्ठों की संख्या भी 43 है ।
गाँधी और आंबेडकर: संवाद, मतभेद और दृष्टि-भिन्नता
अरुन्धती रॉय की यह पुस्तक महज़ दो ऐतिहासिक पात्रों का तुलनात्मक अध्ययन नहीं है, बल्कि यह भारत के सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक ढाँचे पर एक गहन विमर्श है। रॉय गांधी और आंबेडकर—दोनों के विचारों, उनके संघर्षों और उनके आपसी मतभेदों को तीखे किन्तु तथ्यपूर्ण ढंग से रखती हैं।
गाँधी का ‘हरिजन’ शब्द प्रयोग, अस्पृश्यता पर उनके विचार, और सामाजिक सुधार का उनका क्रमिक मार्ग—इन सबकी आलोचना आंबेडकर के दृष्टिकोण से करते हुए पुस्तक यह दिखाती है कि दलित अधिकारों की लड़ाई में आंबेडकर की दृष्टि कहीं अधिक क्रांतिकारी और सीधी थी।
वहीं दूसरी ओर, गांधी की अहिंसा, सत्याग्रह और नैतिक राजनीति की अवधारणाएँ रॉय के विश्लेषण में अपनी जटिलताओं के साथ उभरती हैं—एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो समाज की गहरी जड़ें बदलना चाहता था, पर धीरे-धीरे सुधार के रास्ते से।
भाषा और प्रस्तुति
अरुन्धती रॉय का लेखन हमेशा की तरह सधा हुआ, तर्कपूर्ण और उकसाने वाला है। वे किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व को ‘देवता’ बनाने या ‘खलनायक’ सिद्ध करने की बजाय उनके विचारों की परतें खोलती हैं।
किताब में कई स्थानों पर वे अपनी वैचारिक असहमति स्पष्ट रूप से दर्ज करती हैं, पर तथ्यों और संदर्भों के सहारे यही पुस्तक को गंभीर और भरोसेमंद बनाता है।
उनकी भाषा में भावनात्मकता भी है और तीखापन भी—जैसे पाठक से प्रत्यक्ष संवाद कर रही हों।
संदर्भ—एक अद्भुत शोध-प्रयास जो अनुक्रमणिका देख कर पता चलता है ।
पुस्तक की सबसे उल्लेखनीय विशेषता उसका वृहद् संदर्भ-संग्रह है।
लगभग ढाई सौ पन्नों की इस पुस्तक में 2500 से अधिक संदर्भ लेखिका ने दिए हैं—यह दर्शाता है कि यह रचना कोई आकस्मिक या भावावेश में लिखी टिप्पणी नहीं है, बल्कि वर्षों के अध्ययन, शोध और बहस का परिणाम है।
इतने विशाल स्रोत-संग्रह से यह भी स्पष्ट होता है कि लेखिका इतिहास और राजनीति के कठिन प्रश्नों पर बिना तैयारी के कोई ‘मत’ नहीं देतीं। हर तथ्य के पीछे दस्तावेज़ है, हर दावा किसी उद्धरण या भाषण से पुष्ट है।
गाँधी–आंबेडकर विवाद पर नया दृष्टिकोण
अरुन्धती रॉय इस पुस्तक में उन प्रश्नों को उठाती हैं जिनसे अक्सर मुख्यधारा की राजनीति बचती है:
• क्या गांधी जाति-व्यवस्था को समाप्त करना चाहते थे या उसे ‘सुधारना’?
• क्या आंबेडकर ने गांधी के साथ संवाद में स्वयं को पर्याप्त सुना हुआ पाया?
• क्या दलित मुक्ति के प्रश्न पर दोनों की राहें मूलतः अलग थीं?
इन प्रश्नों पर रॉय का विश्लेषण तटस्थ नहीं—बल्कि स्पष्ट रूप से आंबेडकर-केन्द्रित है।
पर उनकी चुनौती यही है: ऐतिहासिक बहसों को अनदेखा न करें, बल्कि उन्हें समझें, पढ़ें और उनके भीतर छिपे सामाजिक सत्य की पड़ताल करें।
समकालीन भारत में जब इतिहास को नए-नए चश्मों से पढ़ा और समझाया जा रहा है, तब रॉय की यह किताब यह याद दिलाती है कि इतिहास को समझना तभी संभव है जब हम उसमें असल विवाद, असल मतभेद और असल संघर्षों को स्वीकार करें।
किताब में संवाद 139 पृष्ठों में है और सन्दर्भ अनुक्रमणिका की 140 -183 पृष्ठों की लम्बी फ़ेहरिस्त जिसमें हिन्दी अंग्रेज़ी के सन्दर्भ उद्धृत है । मूल रुप से पुस्तक अंग्रेज़ी में लिखी गयी है । मैंने हिन्दी अनुवाद पढ़ा है । किन्तु पुस्तक अन्य कई भाषाओं में अनुवादित है ।
हिन्दी अनुवादक - अनिल यादव जी ने किया है ।
भाषा का प्रवाह और गति पाठक को बन्धें रखता है ।
गांधीवादी उद्वेलित हुए बिना किताब को पढ़े तब पायेंगे कि गाँधी और आंबेडकर—ये दोनों केवल व्यक्तित्व नहीं, बल्कि दो विचारधाराएँ हैं।
एक क्रमिक सुधार की, दूसरी बुनियादी परिवर्तन की।
इन दोनों को बिना समझे भारत के सामाजिक ढाँचे को समझना असंभव है।
कुल मिलाकर—एक विचार-उत्तेजक और ज़रूरी पाठ
एक संत, एक डॉक्टर सिर्फ इतिहास नहीं, आज के भारत की हवा में घूमते उन प्रश्नों का उत्तर ढूँढती है जिन्हें अक्सर ‘असुविधाजनक’ कहकर किनारे किया जाता है।
लेखिका का दृष्टिकोण कहीं-कहीं तीखा, कहीं विवादास्पद अवश्य लगता है, पर साहित्य का काम केवल सहमति जुटाना नहीं—विचारों को जगाना भी है। पर एक बात और हैं लेखिका कहीं भी गाँधी के विचारों को डिस्कार्ड नहीं करती ।
जो पाठक गांधी और आंबेडकर के संबंधों को समझना चाहते हैं, या यह जानना चाहते हैं कि इन दोनों महापुरुषों के विचार आज की राजनीति, समाज और नैतिकता को कैसे प्रभावित करते हैं—उनके लिए यह पुस्तक अनिवार्य रूप से पढ़ने योग्य है।
©️रेणु जुनेजा ✍️